फिल्म समीक्षा: नानी-एसजे सूर्या का दमदार अभिनय और विवेक आत्रेय की मास्टरक्लास लेखनी, ‘Saripodhaa Sanivaaram’ को बनाती है खास
‘सारिपोधा सानिवारम‘ एक ऐसी फिल्म है, जो पारंपरिक व्यावसायिक सिनेमा की सभी खूबियों को एक साथ लाती है और दर्शकों को बांधकर रखती है। नानी और एसजे सूर्या जैसे अभिनेताओं के शानदार प्रदर्शन और विवेक आत्रेय की चतुर लेखनी ने इस फिल्म को एक अलग स्तर पर पहुंचा दिया है।
जब आप एक अच्छी तरह से गढ़ी गई व्यावसायिक फिल्म देखते हैं, तो वह एक तरह से मनोवैज्ञानिक उपचार जैसा काम करती है। नानी और एसजे सूर्या जैसे अनुभवी कलाकारों के होने पर, आपको अंदाजा हो जाता है कि कुछ खास देखने को मिलेगा। यह फिल्म नानी और विवेक आत्रेय की दूसरी साझेदारी है। ‘अंते सुंदरानीकी’ में जहाँ एक प्यारी रोमांटिक कॉमेडी का अनुभव हुआ था, वहीं ‘सारिपोधा सानिवारम’ एक पारिवारिक पृष्ठभूमि में स्थापित एक मसाला मनोरंजक फिल्म है, जिसमें नानी और सूर्या की जोड़ी ने एक बार फिर कमाल किया है।
फिल्म की कहानी: गुस्से की आग में तपता सूर्या
सूर्या (नानी) अपने माता-पिता का लाडला बेटा है, लेकिन उसका गुस्सा उसके जीवन की सबसे बड़ी समस्या बन जाता है। उसकी माँ, जो अब अपने आखिरी दिनों में है, उसे गुस्से को काबू में रखने और हफ्ते में सिर्फ़ शनिवार को ही उसे बाहर निकालने का तरीका सिखाती है। ये एक अनूठी पद्धति है, जिसमें सूर्या उन लोगों की एक सूची बनाता है जिन्होंने उसे गुस्सा दिलाया है, और शनिवार को ही उन पर अपना गुस्सा निकालता है।
फिल्म में चारुलता (प्रियंका मोहन) और सर्किल इंस्पेक्टर दयानंद (एसजे सूर्या) के किरदार सूर्या के जीवन में एक बड़ा मोड़ लाते हैं। जबकि सूर्या अपने गुस्से को काबू में रखता है, वहीं दयानंद एक क्रूर इंस्पेक्टर है, जो बिना किसी वजह के लोगों पर अपना गुस्सा निकालता है। दोनों के रास्ते तब टकराते हैं, जब एक अप्रिय घटना के बाद सूर्या दयानंद के खिलाफ खड़ा हो जाता है।
विवेक आत्रेय की कमर्शियल सिनेमा की सोच
निर्देशक विवेक आत्रेय ने इस फिल्म को एक सरल व्यावसायिक मसाला फिल्म बनाने की बजाय, उसमें गहराई और ठोस आधार दिया है। ‘सारिपोधा सानिवारम’ एक नियमित मास मसाला एंटरटेनर नहीं है, बल्कि एक विचारशील फिल्म है, जिसमें हर एक्शन के पीछे एक ठोस कारण है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें भावनाओं को अनावश्यक रूप से खींचा नहीं गया है। फिल्म अपने मुख्य विचार पर केंद्रित रहती है, जो यह बताती है कि कैसे क्रोध किसी के जीवन को प्रभावित कर सकता है। विवेक आत्रेय की चतुर लेखनी इस फिल्म को दूसरे व्यावसायिक सिनेमा से अलग करती है।
किरदारों का असरदार प्रदर्शन
फिल्म के मुख्य किरदार ही नहीं, बल्कि साई कुमार और अभिरामी जैसे सहायक किरदार भी अपने छोटे-छोटे स्क्रीन टाइम में गहरी छाप छोड़ते हैं। नानी और साई कुमार के बीच की नोकझोंक या ‘ईगा’ फिल्म का कॉलबैक सीक्वेंस, ये सभी फिल्म में मनोरंजन और गहराई का सही संतुलन बनाते हैं।
फिल्म की सीमाएँ और कमियाँ
जहां ‘सारिपोधा सानिवारम’ में ज़्यादातर चीज़ें सही हैं, वहीं कुछ कमियाँ भी हैं। दयानंद का किरदार पुलिस की क्रूरता को महिमामंडित करता है, और उसे सिस्टम से कोई ठोस फटकार नहीं मिलती। इसके अलावा, कुछ जगह पर घटनाएँ बहुत ही संयोगवश हो जाती हैं, लेकिन यह फिल्म की समग्रता को ज़्यादा प्रभावित नहीं करती।
अभिनय और तकनीकी पहलुओं की बात
सूर्या के रूप में नानी ने बेमिसाल संयमित अभिनय किया है। उनके किरदार में गहराई और संवेदनशीलता है, जो उन्हें अपने गुस्से को सही तरीके से व्यक्त करने में मदद करती है। वहीं एसजे सूर्या का दयानंद का किरदार एक आवेगी और हिंसक इंस्पेक्टर का है, जो अपनी कमजोरी और अहंकार से जूझता है।
प्रियंका मोहन ने भी अपने किरदार को बखूबी निभाया है। नानी की बड़ी बहन के रूप में अदिति बालन का छोटा लेकिन महत्वपूर्ण रोल है, जो प्रभावी है।
संगीत और सिनेमैटोग्राफी
संगीतकार जेक्स बेजॉय का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के नाटकीय पलों को और भी अधिक प्रभावी बनाता है। हालांकि, गाने उतने यादगार नहीं हैं। मुरली जी की सिनेमैटोग्राफी और कार्तिक श्रीनिवास की एडिटिंग फिल्म को उसकी वांछित सफलता दिलाने में अहम भूमिका निभाती हैं।
कुल मिलाकर, ‘सारिपोधा सानिवारम’ एक ऐसी फिल्म है, जो नानी और विवेक आत्रेय के फैंस को पूरी तरह से संतुष्ट करेगी। फिल्म में दमदार कहानी, प्रभावी निर्देशन और शानदार अभिनय का संगम है। इस फिल्म को देखना आपके लिए एक सिनेमा अनुभव से कम नहीं होगा।