“दलित इतिहासकार Shailaja Paik ने तोड़ा जातीय बंधन, मिली प्रतिष्ठित ‘जीनियस ग्रांट’ सम्मान”
Shailaja Paik , जो महाराष्ट्र के एक गरीब दलित परिवार से ताल्लुक रखती हैं, ने अपने जीवन में जातीय, लैंगिक और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। उनकी इस अद्वितीय यात्रा को एक और नई ऊंचाई मिली जब उन्हें प्रतिष्ठित मैकआर्थर फेलोशिप के लिए चुना गया, जिसे ‘जीनियस ग्रांट’ के रूप में भी जाना जाता है। यह सम्मान उनके दलित, लैंगिक और यौनिकता से जुड़े अनुसंधान के लिए दिया गया है। उन्हें $800,000 की इस फेलोशिप से नवाज़ा गया, जो उन्हें अपनी शोध को और विस्तार देने और दुनिया भर में जातीय और सामाजिक न्याय से जुड़े साथियों के साथ सहयोग करने का अवसर प्रदान करेगा।
Shailaja Paik का कहना है, “दलितों ने अपने खून और जान की कुर्बानी दी है, और मुझे उम्मीद है कि गैर-दलित भी उनके साथ खड़े होंगे और जाति, लिंग और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लड़ेंगे।” उनके अनुसार, यह फेलोशिप न केवल उनके काम की सराहना है, बल्कि यह दलित समाज के योगदान का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। शैलजा पाइक वर्तमान में सिनसिनाटी, यूएसए में इतिहास, महिला, लिंग और यौनिकता अध्ययन की सहायक प्रोफेसर हैं।
पाइक का संघर्ष और योगदान
Shailaja Paik का जन्म महाराष्ट्र के एक गरीब दलित परिवार में हुआ था। उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा, जहां उन्होंने समाज में व्याप्त जातीय और लैंगिक भेदभाव का सामना किया। उनके जीवन की शुरुआत पुणे की झोपड़पट्टी में हुई, जहां वे अपने माता-पिता और तीन बहनों के साथ एक छोटे से घर में रहीं। उनके पिता, देवराम एफ. पाइक, अपने क्षेत्र के पहले दलित व्यक्ति थे जिन्होंने स्नातक की डिग्री हासिल की।
पाइक ने सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और फिर फोर्ड फाउंडेशन की मदद से यूके के वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी की। उनके शोध का केंद्र बिंदु पिछले 25 वर्षों से दलित समुदाय रहा है। पाइक की पहली पुस्तक “Dalit Women’s Education in Modern India: Double Discrimination” 2014 में प्रकाशित हुई, जिसमें महाराष्ट्र की दलित महिलाओं की शिक्षा और उनके संघर्षों को सामने लाया गया। उनकी दूसरी पुस्तक “The Vulgarity of Caste: Dalits, Sexuality, and Humanity in Modern India” महाराष्ट्र की तमाशा कलाकारों की जिंदगी पर आधारित है, जिनमें से कई दलित महिलाएं हैं।
फेलोशिप और पहचान
मैकआर्थर फेलोशिप को अक्सर “नो-स्ट्रिंग्स-अटैच्ड” ग्रांट के रूप में भी जाना जाता है, जो किसी प्रोजेक्ट के लिए नहीं बल्कि व्यक्ति को समर्थन देने के लिए दी जाती है। हर साल, जॉन डी. और कैथरीन टी. मैकआर्थर फाउंडेशन 20 से 30 असाधारण व्यक्तियों को इस ग्रांट से सम्मानित करता है। फेलोशिप के लिए कोई आवेदन या साक्षात्कार नहीं होता है, बल्कि साथियों द्वारा अनुशंसा के आधार पर इसे प्रदान किया जाता है। पाइक को 2024 में इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया और वे 22 फेलो में से एक हैं।
Shailaja Paik के अनुसार, “इस फेलोशिप के माध्यम से हम जातीय और लैंगिक असमानताओं का अध्ययन कर सकते हैं, और नई दिशाओं में मानवता और मुक्ति के बारे में सोच सकते हैं।” उनका काम जाति, लिंग और यौनिकता के परस्पर संबंधों को समझने में नई दिशाओं का उद्घाटन करता है। पाइक का मानना है कि भेदभाव के खिलाफ लड़ाई केवल दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर लड़ा जाना चाहिए।
पारिवारिक संघर्ष और प्रेरणा
पाइक के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे उनके माता-पिता का बड़ा योगदान रहा। उनकी मां, सरिता पाइक, ने कहा, “मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी बेटी इतनी ऊंचाई तक पहुंचेगी, लेकिन यह उसकी मेहनत और दृढ़ संकल्प का नतीजा है।” शैलजा के पिता, देवराम, का सपना था कि उनकी सभी बेटियां अच्छी शिक्षा प्राप्त करें। दुर्भाग्य से, देवराम का निधन 1996 में हो गया, जिसके बाद शैलजा को अपने परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ी।
शिक्षा और करियर
पाइक का कहना है कि “भारत में जातिगत भेदभाव को कानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया है, लेकिन यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक ढांचे में अब भी गहराई से जड़ा हुआ है।” उनकी किताबें और लेखन इस बात को और भी स्पष्ट करते हैं कि कैसे दलित समुदाय आज भी भेदभाव का शिकार है।
शैलजा पाइक ने पुणे विश्वविद्यालय से 1994 में स्नातक और 1996 में मास्टर की डिग्री हासिल की। उन्होंने 2007 में वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी की। इसके बाद, उन्होंने यूनियन कॉलेज और येल विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। 2010 से, वे सिनसिनाटी विश्वविद्यालय से जुड़ी हुई हैं, जहां वे वर्तमान में इतिहास की प्रोफेसर हैं। उनके अनुसंधान ने जाति, लिंग और यौनिकता के बीच के संबंधों को समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
निष्कर्ष
शैलजा पाइक का जीवन और उनका काम एक प्रेरणा है कि किस प्रकार कठिनाइयों के बावजूद कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उनके योगदान ने न केवल दलित समुदाय को एक नई आवाज़ दी है, बल्कि जातीय और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई को भी नया आयाम दिया है। उनका यह सफर उन सभी के लिए प्रेरणादायक है जो समानता और न्याय के लिए लड़ रहे हैं।